Thursday 23 June 2016

झर झर निर्झरिणी बह निकली
अलमस्त पवन के संग चली
प्रिय मिलन की मन में आस लिए
आतुर व्याकुल होकर निकली

उत्तंग शिखर से चली निकल
घाटी पत्थर पर्वत समतल
सुधबुध खोकर हो रही विकल
उठती गिरती जैसे पगली

इक चंचल चपल चकोरी सी
मनभावन मुग्ध मयूरी सी
अंतस अंबुधि की आस लिए
झागों की चूनर पहने उजली

दुर्गम रस्ते पत्थर चट्टानों में
जीवन के अनगिन आयामों में
स्थिर अविचल रहना तुम भी
हर पग देती यह सीख भली

अंजुरी भर पूर्ण प्रसाद लिए
कलकल मन में आह्लाद लिए
मिल इष्ट की पावन लहरों से
अपना अस्तित्व ही भूल चली

यह प्रेम सुधा सरिता पावन
रिमझिम बरसे जैसे सावन
न स्वयं रहे न अहम रहे
नव पुष्प बने तब प्रेम कली
-----प्रियंका

1 comment:

  1. वाह ...पंक्तियों का माधुर्य प्रखर भी हैं और प्रचुर भी ...बधाई

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