Monday 29 February 2016

यादें

आज भी खिलती हैं यादें तेरी
गुलदाऊदी के फूलों सी
अहसास के तमाम रंगों से लबरेज़
तो अचानक महसूस होती है
हंसी तेरी झरते हरसिंगार सी
खुशनुमा मौसम सर्द हवाएं
ठंडी हथेलियाँ मुँह से निकलती भाप
गर्म कॉफ़ी
सब वैसा ही है
कुछ भी तो नहीं बदला
हाँ बहुत मद्धम हो चली है
तपिश सूरज की
और तुम सा नज़र भी नहीं आता
ज़िद्दी है
तुम्हारी ही तरह
तेरे जाने से
उदासी के कोहरे में लिपटा दिसंबर
गुज़र तो रहा है
पर जाने क्यों
बहुत लम्बा हो चला है.....!!!
----प्रियंका
बहुत ज़रूरी हो जाता है
चमक से चुँधियाइ आँखों को
दूर करना तेज़ रौशनी से
ताकि बचा रह सके
मौलिक अस्तित्व 
छोटे से दिए की रौशनी का
रुक कर कहीं
तेज़ रफ़्तार से छुड़ा हाथ
नापना अपने कदमों की गहराई
खोजना तमाम छूटे निशान
जो अनदेखे रहे
आपाधापी में
भीड़ से अलग बैठ
शांत होकर
मन के किसी कोने में
खोजना मिलना खुद से
बहुत ज़रूरी हो जाता है
भारहीन हो उड़ना
सम्भावनाओं के
अनंत आकाश में
आकर्षण के गुरुत्व से
मुक्त हो
अधूरे सपनों के लिए........!!!!
------प्रियंका