Sunday 1 March 2015

फिसल ही जाता है वक़्त
बंद मुट्ठी से भी रेत की तरह
छूट जाती है तमाम ज़िद्दी यादें
बीच उँगलियों के
मानो जोड़ लिया हो एक रिश्ता मुझसे
कल की खुशियों और आज के दर्द तक का
सागर सी ज़िन्दगी
कभी अलमस्त कभी शांत
निभा लेती है रिश्ते जाने कैसे कैसे
कभी रेत के घरोंदों जैसे
बनते ढहते सपने
कभी जाने क्या क्या खुद में समेटे
या दफ़न किये बहुत कुछ खुद में
रेत के किनारों जैसे
या
आँख में रेत से चुभते किसी रिश्ते जैसे
जिनकी आज ज़रूरत। ही न रही .......
------प्रियंका े

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