Sunday 1 March 2015

वादे

चलते चलते ठहरा था
बादल कोई कभी यूँ ही
कर गया नर्म ज़मी
सूखी सी पड़ी थी जो अब तक
ठहरना फितरत न सही
बंध के रहना यूँ मुमकिन भी न था
रूठे मौसम सा जाऊँगा
पर लौट के फिर आ जाऊँगा
देख लेना तू
कह देता था ज़मी से अक्सर
बदले मौसम,हवाएँ और
जीने के तरीके भी शायद
सिमट चुकी है नमी भी
पलकों की कोरों में
बंदिशों में जकड़ी आवाज़ें भी
घुट के रह जाती है कहीं
खुद ही खुद से भी
कह पाती कुछ भी
हाँ....
यकीन है तो इतना बस
कुछ वादे आज भी
कहीं कभी पूरे हुआ करते है..........
------प्रियंका

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