Sunday 1 March 2015

प्रेम

प्रेम....
कहाँ परिभाषित था
मौन में सिमटा सकुचाया सा
बंध जाता है अनायास ही
जिंदगी के पेड़ पर
एक मन्नत का धागा
साँसों की डोर से
चाह कर भी खुल कहाँ पाता
कहते है अँधा होता है प्रेम
मिल जाता है
फूलों की खुशबू में
हवाओं की सरगम में
ओस की नमी में
अचानक ही
सोच समझ कर तो
साजिशें हुआ करती हैं.......
-----प्रियंका

1 comment:

  1. बंध जाता हैं अनायास ही ..जिंदगी के पेड़ पर इक मन्नत का धागा... सांसों की डोर से .....वाह...ये दृश्य सजीव हो उठा हैं इस कलमकारी से ...बहुत खूब ऐसा भी न परिभाषित किया हो किसी ने प्रेम को ...भावपूर्ण समर्पण..बहुत बधाई ..ऐसा भी लिखती हो आप ..वाह

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