Sunday 1 March 2015

मसरूफ़ तुम

कहना तो था बहुत कुछ
मगर तमाम अल्फाज़ो की भीड़
कुछ दायरे और तुम्हारी मसरूफियत
रोक ही लेती है हर वक्त
कुछ कहने से
बस यूँ ही कहीं भी
ओस के किसी सूखे क़तरे
अलस्सुबह धूप की नमी
आवाज़ों की चुप या
सन्नाटों के शोरगुल में
मिल ही जाया करते हो कहीं
कोहरे में छिपता चाँद
मैं और तुम सच ही हैं सब
अल्फाज़ो की धुंध हटा कर
समेट लेना चाँद आँखों में
बहुत ज़रूरी होता है
जीने की कोई वजह होना
इतनी नाकाफी भी नहीं ये वज़हें
धुंधला चाँद
सिर्फ दो लफ्ज़
अल्फाज़ो के सहेजे तमाम
मायूस पुलिंदे
और एक अहसास से
बेहद मसरूफ़ कही पर तुम..............
-----प्रियंका

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