Sunday 1 March 2015

ए ज़िंदगी शायद मेरी तुझको जरूरत न रही
तेरी क्या खुद की भी अब मुझे चाहत न रही
जज़्ब हो गया कुछ इस तरह तेरा वज़ूद मुझमे
इस आइने में मेरी अब तो वो सूरत न रही
मायूस अंधेरों में रूह फिरती है अब तो मेरी
ख्यालों में कभी तू ही था और की सूरत न रही
इन खामोशियों ने कुछ इस तरह घेरा मुझको
तुझसे क्या अब खुद से भी कोई गुफ्तगू न रही
अपनी तन्हाइयों से ही इश्क़ हो चला हमको
तेरे ख्याल के सिवा अब कोई जुस्तजू न रही
बहुत थक गई हूँ लड़ के बेरुखी से तेरी
किसी भी सवाल को ज़वाब की आरज़ू न रही
क्यों खोजूं तुझे सारे जहाँ की गलियों में
हमसाया तू है हर वक़्त मै ही रूबरू न रही
______________ प्रियंका पांडे

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