Thursday 31 July 2014

दिन


दिन
कतरा कतरा पिघलता है
लम्हा लम्हा ढलता है दिन
बंद आंखों के चंद ख्वाब की तरह
रोज ही बनता बिगडता है दिन

किसी भटके मुसाफिर की तरह
रोज उन्हीं गलियारों से गुजरता है दिन

कभी सुस्त कदमों से
कभी वक्त से बहुत तेज
जाने कयूं कहां कहां भटकता है दिन

सुरमई सी सुबह धूप तेज दुपहरी की
या शर्मीली सांझ से
चंद लम्हे बटोरता है दिन

बेचैन सा फिरता है
चैन कहां हासिल उसको
तमाम बंद किताबों को
रोज खोलता पढता है दिन

सांझ गए
किनारे झील के खामोशी से
गम और खुशी के
तमाम पल फिर गिनता है दिन

हर पहर छुडा लेता है हाथ
बारी बारी से
फिर भी मुस्कुराता टहलता है दिन

यूं ही तो नहीं गुजर जाया करता
अपनों की तल्खियों से
थक कर जब टूटता है
तब डूबता है दिन............................

-----प्रियंका

Saturday 19 July 2014

श्रम ताप हरो मन का आकर
सुख सुषमा के पावन दिनकर
अब क्लान्त जगत को श्रान्त करो
नव किरण बिखेरो रजनी हर

शुचि प्रेम सुधा पावन भर दो
झलके स्मित अधरों पर मर्मर
आतप्त करो जलते मन को
करुणामय हस्त वरद धर कर

अस्ताचल सूरज चंद्र उदित
हो स्तब्ध सांझ रजनी प्रमुदित
जीवन को अनगिन रूप दिए
पर अंत तुम्ही सबकुछ नश्वर

नक्षत्र यहां जलते झिलमिल
शशि निशि की भी पलकें तंद्रिल
बन सुखद स्वप्न मन में विचरो
संतृप्त करो शीतलता भर
-------प्रियंका