Friday 7 March 2014

राधा का धर्म .......

हो गए शब्द विस्मृत से कहीं
हृदय पत्र अश्रु की स्याही है
प्रभु क्यूं छोड चले मुझको
घडी ये कैसी आई है
कर्म के पथ पर जाकर
प्रेम को न बिसरा जाना
तुमसे ये मूक निवेदन है
हे कृष्णा तुम मत जाना.
विकल चित्त कृष्णा भी थे
नैनों से नीर कहां रूकते
कौन भला अब क्या कहता
बस मौन वहां पसरा सा था
राधिके तुम कुछ तो बोलो
या जाने दो अब हठ छोडो
बोली राधिका मैं हूं अज्ञानी
तुमसे क्या बोलूं हे ज्ञानी
साथ छोडना भी चाहोगे
तो भला कहां तुम जाओगे
हृदय से जब बाहर जाना
तब तुम अवश्य चले जाना
ज्ञान की बातें कोरी हैं
मेरी मति भी थोरी है
बस प्रेम की भाषा जानूं मैं
बस तुमको अपना मानूं मैं
धर्म मेरा तुमको पकडे रहना
आलम्बन तेरा ही करना
श्रद्धा सुमन चढाने दो
 मुझे अपना धर्म निभाने दो
           ----प्रियंका



1 comment: